Saturday, 29 November 2014

कविता : इंजीनियरिंग का बेहाल हाल

सुहानी शाम में बैठे थे चार यार,
ख़ामोशी से एक दूसरे को देख रहे थे बार बार,
चार खाली गिलास और एक बोतल शराब,
मुद्दा ये था कि किसकी किस्मत है ज़्यादा ख़राब,
नशे से ज़्यादा बेबसी थी आँखों में उनकी
एक अजीब सी भड़ास थी बातो में उनकी,
पहला बन्दा गिलास पटक के बात शुरू करता है :
साला, क्या सोचा था और  क्या हो गया ,
बचा खुचा नसीब भी अब चादर तान के सो गया,
दूसरे बन्दे ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई,
झट से एक गिलास शराब और पिलाई,
तीसरे बन्दे ने अपना गुस्सा सिस्टम पर निकाला,
कुछ बोलने से पहले ही गिलास तोड़ डाला,
वो बोला साला नौकर बनने के लिए चार साल लगाए
नौकरी के लिए कॉलेज वाले ऊँगली पर नचाए,
उनके इशारो पर नाचने के लिए भी हो गए तैयार,
नौकरी के सपने देखने में ही जवानी हो गयी बेकार,
practical knowledge की जगह theory का है बोझ भारी,
4 साल में होती है फिर धना धन एग्जाम की बमबारी,
रात रात भर जाग कर बन गए है उल्लू,
फिर भी हमको मिला क्या- बाबाजी का ठुल्लु,
उसकी बाते सुनकर तीनो ग़मगीन हो गए,
वो बोलता रहा और ये  सब सो गए,
अब तो बेरोजगारी का आतंक मचाने लगा है शोर,
तभी तो लादेन जैसे इंजीनियर पकड़ रहे है ज़ोर,
आज सभी इंजीनियर्स का है यही हाल,
नौकरी की टेंशन में साला ज़िंदगी हो गयी बेहाल ॥

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PIYUSH VIJAYVARGIYA
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